जब शिशु गर्भ में होता है तो वह व्याकुल होता है। वह जल्द से जल्द इस अंधकूप से निकलना चाहता है। तब भगवान उससे कहते हैं कि क्या तू धरती पर जाकर मेरा स्मरण करेगा? क्या तू विषय वस्तुओं से खुद को अलग रखकर मेरे द्वारा दिखाए मार्ग का अनुसरण करेगा? याद रख यदि तूने ऐसा नहीं किया तो तुझे एक बार फिर 84 योनियों में भटकने के लिए भेज दूंगा। शिशु भगवतमार्ग पर चलने की कसम खाता है और भूमिष्ट हो जाता है। किन्तु इसके बाद बहुत कम लोगों को ही गर्भ में भगवान को दिया अपना वचन याद रहता है। शुकदेव ने राजा परीक्षित को श्रीमदभागवत महापुराण की कथा सुनाने से पूर्व भी यही कहा कि यदि मनुष्य अपने चित्त को भगवान में लगाता है तो उसका मृत्यु का भय खत्म हो जाता है और वह दिव्यलोक को प्राप्त होता है। उन्होंने विभिन्न कथा प्रसंगों से इसकी व्याख्या की।
हरिणाक्ष का जन्म
भगवान ब्रह्मा के पुत्र सनकादिक जब भगवान से मिलने बैकुंठधाम पहुंचे तो उन्होंने छह द्वार अनायास पार कर लिए किन्तु सातवें द्वार पर खड़े द्वारपालों ने उन्हें रोका। इसपर सनकादिक क्रोधित हो गए और उन्हें टोकते हुए कहा - भगवान की शरण में रहने के बाद भी कैसे अज्ञानी हो। ऋषियों और भक्तों पर संदेह करते हो। इसके बाद भगवान स्वयं वहां उपस्थित हो जाते हैं और अपने द्वारपाल जय और विजय को दंडित कर मृत्युलोक भेज देते हैं।
उधर मृत्युलोक में कश्यप ऋषि की पत्नी दिती उनसे असमय गर्भधारण की इच्छा जताती है। कश्यप ऋषि उसकी बात तो मान जाते हैं किन्तु साथ ही भविष्यवाणी भी कर देते हैं कि उनके गर्भ से भयंकर राक्षसों का जन्म होगा। दिती के गर्भ में जय और विजय जुड़वा रूप में आ जाते हैं। दिती के गर्भ का तेज देखकर देवता घबरा जाते हैं। पर भगवान उन्हें आश्वस्त करते हैं कि इनका संहार वे स्वयं करेंगे। समय आने पर दिती के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हरिणाक्ष का जन्म होता है। दोनों भयानक राक्षस होते हैं। हिरण्यकश्यप जहां राजा हो जाता है वहीं हरिणाक्ष समुद्र में छलांग लगा देता है। वहां उसका सामना वरुण से होता है और वह वहीं रहने लगता है।
वराह अवतार
दैत्य पृथ्वी को पाताल लोक में छिपा देते हैं। लोग त्राहि त्राहि कर उठते हैं। देवता एक बार फिर ब्रह्मा के पास पहुंचते हैं। ब्रह्मा जी की छींक से एक सूक्ष्म वराह की उत्पत्ति होती है जो जन्म लेते ही विशाल आकार धारण कर लेता है। विशाल वराह समुद्र में छलांग लगा देता है और उसे दो भागों में बांटता हुआ पाताल लोक में चला जाता है। वहां से वह पृथ्वी को अपनी डाढ़ पर टिकाए तेजी से ऊपर लौटने लगता है। हिरणाक्ष उनकी राह रोकने की कोशिश करता है पर भगवान वराह पृथ्वी को वापस उसके स्थान पर लाकर स्थापित कर देते हैं। फिर हिरणाक्ष से उनका भयानक युद्ध होता है। अंत में वे हिरणाक्ष का गर्व खंडित कर देते हैं और मुष्टिका प्रहार से उसे शरीर से मुक्त कर देते हैं।

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