Wednesday, September 10, 2014

आत्मदेव ब्राह्मण की कथा

आत्मदेव ब्राह्मण अत्यंत ज्ञानी थे और उनकी पत्नी भी अत्यंत रूपवती थी किन्तु उनके मन में अथाह पीड़ा थी। वे स्वयं तो संतानहीन थे ही, उनके यहां की गाय भी बांझ थी। वे कोई पौधा रोपते तो उसमें भी फल, फूल आदि नहीं लगते। इसी पीड़ा को लेकर आत्मदेव ब्राह्मण किसी तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। पर जब अंतस की पीड़ा असह्य हो गई तो एक दिन उन्होंने अपने प्राण त्याग देने की ठानी और पहुंच गए सरोवर के तट पर। वहां उनकी मुलाकात एक संन्यासी से हुई। आत्मदेव को प्राणोत्सर्ग करने की चेष्टा करते देख संन्यासी को उसपर दया आ गई। उन्होंने आत्मदेव से इसका कारण पूछा। आत्मदेव ने अपनी पीड़ा सुनाई। संन्यासी ने अपने तपोबल से उसके ललाट को देखा। उन्होंने आत्मदेव को बताया कि उसे तो सात जन्मों तक संतान सुख नहीं मिलने वाला। आत्मदेव अनुनय करने लगे तो संन्यासी ने उन्हें एक फल दिया। उन्होंने आत्मदेव से कहा कि वह फल को लेकर अपनी पत्नी को खिला दे। उसे अवश्य संतान होगी।
आत्मदेव खुशी खुशी अपने घर लौट आया। उसने वह फल अपनी पत्नी धुंधली को दे दिया और सारा हाल कह सुनाया। धुंधली ने फल को ले तो लिया किन्तु उसके मान में तर्क कुतर्क उठने लगे। उसने सोचा कि यदि फल को खाने के बाद उसने गर्भधारण कर लिया तो उसका सुन्दर शरीर विकृत हो जाएगा। शिशु के उत्पन्न होने पर उसकी देखभाल करनी पड़ेगी। उसने वह फल अपनी बहन को दे दिया। धुंधली की बहन उस समय गर्भवती थी। धुंधली के मन के द्वंद्व को ताड़कर उसने धुंधली से कहा कि जन्म देने के बाद वह अपनी संतान उसे सौंप देगी। उसकी देखभाल करने के लिये वह यहां रुक भी जाएगी। ऐसा कहकर उसने फल गाय को खिला दिया।
समय आने पर धुंधली की बहन ने एक शिशु को जन्म दिया। उसका नाम धुंधकारी रखा गया। उधर गाय ने भी एक इंसान रूपी शिशु को जन्म दिया। सिर्फ उसके कान गौमाता की तरह थे। उसका नाम गौकरण रखा गया। दोनों शिशु बड़े होने लगे। संन्यासी के आशीर्वाद से उत्पन्न गौकर्ण ने तेजी से ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया और उसमें दैवीय गुण विकसित होने लगे। इधर धुंधकारी उत्कट स्वभाव वाला निकला। उसमें विकृत गुणों का विकास होने लगा। आत्मदेव यह सब देखकर अत्यंत दुखी हो गए। वह दिन रात चिंता करते रहते। एक दिन गौकर्ण ने उन्हें चिंता में डूबे देखा तो पूछा कि वे किसे अपना मान रहे हैं। यह सब तो एक दिन नष्ट होना ही है। उन्होंने आत्मदेव को भागवत में ध्यान लगाने की सलाह दी। आत्मदेव ने ऐसा ही किया और क्लेष से मुक्त हो गया।
उधर धुंधकारी ने अपनी माता को भयंकर कष्ट देना शुरू किया। धुंधली बहुत दुखी रहने लगी। धुंधकारी सकल कुकर्मी, वेश्यागामी हो गया था। धुंधली ने यह सब देखकर एक दिन कुएं में छलांग लगाकर अपने प्राण त्याग दिए। इसके बाद तो धुंधकारी और भी विश्रृंखल हो गया। वह अपने घर पर ही तमाम वेश्याओं को लेकर आने लगा। घर की जमा पूंजी, बर्तन भांडे सब बिक गए। धुंधकारी चोरियां करने लगा। एक दिन उसने राजा के घर चोरी कर ली और सारा माल लेकर वेश्याओं के पास पहुंचा। वेश्याओं को यह डर सताने लगा कि धुंधकारी ने राजा के घर चोरी की है। इसकी तो पड़ताल होकर रहेगी। और जब धुंधकारी पकड़ा जाएगा तो उसे तो दण्ड मिलेगा ही साथ ही हमें भी कष्ट भोगना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने धुंधकारी की हत्या कर दी। इस तरह धुंधकारी प्रेत योनि में चला गया और घर के आसपास भटकने लगा।
उधर तीर्थ से लौटकर गौकर्ण जब घर आया तो वहां सन्नाटा पसरा हुआ था। उसने वहीं विश्राम करने की ठानी। तब जाकर उसे प्रेत के विलाप की ध्वनियां सुनाई दीं। उसने प्रेत से पूछा कि वह कौन है और क्या चाहता है। पर प्रेत की बातें वह सुन नहीं पा रहा था। तब उसने अपने कमंडल से उसपर तीर्थ का जल छिड़का। इसपर धुंधकारी ने कहा कि वह उनका अभागा भाई है। उसने उन्हें सारी आपबीती सुना दी। धुंधकारी ने गौकर्ण से विनती की कि वह उन्हें प्रेतयोनि से मुक्त कराए। पहले तो गौकर्ण उलझन में पड़ गया। फिर उसने एक ब्राह्मण को श्रोता बनाया और भागवत कथा सुनानी शुरू कर दी। उसने धुंधकारी से कहा कि वह भी कथा सुने। सात दिन बाद जब कथा पूर्ण हुई तो धुंधकारी को प्रेत योनि से मुक्ति मिल गई। उसे गोकुलधाम ले जाने के लिए विमान आ पहुंचा। इसे देखकर जब ब्राह्मण ने पूछा कि धुंधकारी के लिए विमान क्यों तो गौकर्ण ने कहा कि धुंधकारी ने चूंकि कथा पूर्ण मनोयोग के साथ एक चित्त होकर सुनी थी इसलिए उसे श्रेष्ठ परिणाम मिला है।

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