Wednesday, September 10, 2014

गजेन्द्र मोक्ष

कथा व्यास श्रीगोपाल शरण देवाचार्य ने कहा भगवान हर हाल में अपने भक्त की रक्षा करते हैं। जिसकी जिह्वा पर एक  बार भी भगवान का नाम आ गया, वे उसे तार देते हैं। अपनी ताकत और संख्याबल के दर्प में चूर्ण गजेन्द्र को जब ग्राह ने जकड़ लिया तो अंतिम समय में उन्होंने विष्णु का स्मरण किया और भगवान विष्णु वहां पहुंच गए।
त्रिकूट नामक सुन्दर पर्वत की तलहटि के वनों में गजराज का निवास था। उनकी काया विशाल थी और वे बेहद शक्तिशाली भी थे। उनका हथिनियों का झुण्ड भी विशाल था। गजराज को अपनी ताकत और संख्याबल पर घमण्ड हो गया था। एक दिन वे हथिनियों के साथ विचरते हुए वन में दूर तक निकल गए। उन्हें प्यास लग आई। उन्होंने अपनी सूंड ऊपर उठाकर चारों दिशाओं की हवा को सूंघा और सरोवर का संकेत मिलने पर उधर ही चले गए। यह सरोवर बेहद सुन्दर था। उसमें सुन्दर कमल खिले हुए थे। कमल के पराग से सरोवर का जल स्वर्णाभ हो गया था। गजराज ने एक पांव सरोवर में रखा और सूंड से जल खींचकर उसे हथिनियों पर छिड़कने लगे। इसी तरह जलक्रीड़ा करते हुए उन्होंने अपनी प्यास भी बुझाई और शरीर को भी ठंडा कर लिया। किन्तु जब गजराज बाहर निकलने को हुए तो ग्राह ने उनके पैरों को जकड़ लिया। कभी गजराज ग्राह को घसीटते हुए किनारे तक आते तो कभी ग्राह उन्हें घसीटता हुआ सरोवर के बीच ले जाता। हथिनियों ने पहले तो गजराज की मदद की कोशिश की किन्तु बाद में उसे मरता छोड़कर चली गईं। एक हजार साल तक चली इस खींचातानी के बाद गजराज निढाल हो गया। अपने अंतिम समय में उसे श्रीहरि की याद आ गई और वह पूरे मन से रक्षा के लिए उन्हें पुकारने लगा। श्रीविष्णु भी कहां रुकने वाले थे। तत्काल अपने गरूढ़ पर सवार होकर वे सरोवर की तरफ उड़ चले। दूर से ही उन्होंने गजेन्द्र को छटपटाते देख लिया। उन्होंने गरूढ़ को उतरने का संकेत किया तो उसने कहा कि कुछ वक्त लगेगा। इसपर श्रीहरि ने गरूढ़ पर से छलांग लगा दी। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह के टुकड़े टुकड़े कर दिए और गजेन्द्र के प्राणों की रक्षा की।
सुदर्शन चक्र से टुकड़े टुकड़े होने पर ग्राह की मुक्ति हो गई। इसपर देवताओं ने श्रीहरि से पूछा कि यह आपने क्या किया। आपको तो गजेन्द्र ने पुकारा था किन्तु आपने उससे पहले ग्राह को मुक्ति दे दी। तब श्रीहरि ने मुस्कराते हुए बताया कि ये दोनों ही अपने पूर्व जन्मों का फल भोग रहे हैं। यह ग्राह पूर्व जन्म में हूहू नाम का गंधर्व था। वह देवल ऋषि को परेशान कर रहा था। जब भी देवल ऋषि स्नान के लिए जाते वह उनके पांव पकड़ लेता। ऋषि के श्राप से ही वह ग्राह बनकर यहां पड़ा हुआ था। और गजेन्द्र पूर्व जन्म में राजा इंद्रद्युम्न था। उसे अपनी शक्ति का गर्व हो गया था। वह भी श्राप से ही गजराज के रूप में मृत्युलोक में पहुंचा था। ये दोनों ही मेरे भक्त हैं और मुझे प्रिय हैं।

हिरण्यकशिपु का अंत

श्रीहरि की आज्ञा से मृत्युलोक पर जन्म लेने वाले उनके दो द्वारपालों में से एक हिरण्याक्ष का वध तो उन्होंने वराह अवतार के रूप में पहले ही कर दिया था, अब रह गया था हिरण्यकशिपु। वह न केवल स्वयं को भगवान समझता था बल्कि दूसरों को भी ईश्वर का नाम लेने से रोकता था। ऐसे व्यक्ति के घर श्रीहरि के अनन्य भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ। प्रह्लाद जब पांच वर्ष का हुआ तो हिरण्यकशिपु ने उसे शुक्राचार्य के पुत्र के पास धर्मविहीन शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा। कुछ समय बाद जब प्रह्लाद राजमहल लौटे तो हिरण्यकशिपु ने उससे पूछा कि वह क्या सीख कर आया है। प्रह्लाद ने कहा कि यह संसार अंधा कुआं है। यहां जन्म लेने वाले को कुछ दिखाई नहीं देता। इसलिए उसे अपने आपको भगवत चरणों में अर्पित कर सांसारिक कत्र्तव्यों का पालन करना चाहिए। कुपित हिरण्यकशिपु ने उसे पुन: धमर्हीन शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेज दिया। इस बार भी लौटने पर उसने वही कहा कि ईश्वर के नाम का श्रवण, कीर्तन करने वाले को ही मुक्ति मिलती है। ईश्वर की दास भाव से सेवा करानी चाहिए और सखा भाव से भजन करना चाहिए। भगवान के चरणों में खुद को न्यौछावर कर देना चाहिए।
इतना सुनते ही हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया। उसने प्रह्लाद को ऊंचे पर्वत से फेंकने का आदेश दिया। पर जैसे ही प्रह्लाद को फेंका गया वह सुन्दर नर्म फूलों का बिस्तर लग गया। प्रह्लाद को खरोंच तक नहीं आई। उसे मदमत्त हाथी से कुचल कर मारने की कोशिश की गई किन्तु हाथी आगे ही नहीं बढ़े। उसे भयंकर विषधर सर्पों के साथ एक कक्ष में बंद कर दिया गया। श्रीहरि ने बालक के शरीर को वज्र सा कठोर बना दिया। हिरण्यकशिपु के आदेश पर प्रह्लाद को उसकी माता ने विषयुक्त भोजन परोसा। पर विष्णु की आज्ञा पर श्रीलक्ष्मी ने प्रह्लाद को भोजन अपने हाथों से कराया जिससे विष का प्रभाव समाप्त हो गया। इस तरह जब हिरण्यकशिपु सारे उपाय करके हार गया तो उसकी बहन होलिका ने एक प्रस्ताव दिया। उसने बताया कि उसके पास अग्निचीर है। यदि वह अग्निचीर ओढ़कर बालक प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करती है तो प्रह्लाद भस्म हो जाएगा जबकि उसका बाल भी बांका नहीं होगा। हिरण्यकशिपु ने बड़ी चिता सजाने की आज्ञा दी पर काष्ठागारों ने लकड़ी देने से इंकार कर दिया। तब इधर उधर से चोरी करके काष्ठ का इंतजाम किया गया और चिता सजाई गई। इसपर होलिका प्रह्लाद को लेकर बैठ गई। जैसे ही चिता को अग्नि दी गई भगवान के आदेश से पवन देव ने अग्निचीर को उड़ाकर उससे प्रह्लाद को लपेट दिया। होलिका जलकर राख हो गई और बालक प्रह्लाद श्रीहरि का कीर्तन करता हुआ   बाहर आ गया। इसके बाद हरिण्यकशिपु ने भयंकर हुंकार भरते हुए प्रह्लाद को ललकारा कि क्या उसका भगवान विशाल खंभे में भी है। प्रह्लाद ने कहा हां। जैसे ही हिरण्यकशिपु ने खंभे पर प्रहार किया वहां से भयंकर गजर्ना करते हुए नृसिंह रूप में भगवान बाहर आ गए। दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था कि उसे न तो दिन में और न रात में, न नीचे और न ऊपर, न अस्त्र से और न शस्त्र से, न नर और न ही सिंह के हाथों मृत्यु प्राप्त हो सकती है। नृसिंह अवतार ने उसे उठाकर अपनी जांघों पर धर दिया और पंजों से उसे फाड़कर उसके प्राण निकाल दिए। इस तरह से हिरण्यकशिपु को भी मुक्ति मिल गई। जब देवताओं ने हिरण्यकशिपु जैसे राजा की मुक्ति की बाबत सवाल किया तो श्रीहरि ने कहा कि जिस परिवार में एक वैष्णव (विष्णुभक्त) का जन्म हो जाए, उसकी 21 पीढि?ां तर जाती हैं। हिरण्यकशिपु के साथ भी ऐसा ही हुआ।

असुर बालकों को दिया ज्ञान

भक्त प्रह्लाद को धर्महीन शिक्षा के लिए भेजा गया किन्तु उसके गुरू उसे कुछ भी नहीं सिखा पाए। क्योंकि जिस पर श्रीहरि का रंग चढ़ चुका हो उस पर कोई और रंग चढ़ता ही नहीं है। प्रह्लाद पर तो आसुरी शिक्षा को कोई रंग चढ़ा ही नहीं उलटे उसने असुर बालकों को भगवद् रंग में रंग दिया। उसने असुर बालकों को बताया कि आसुरी प्रवृत्तियों का त्याग करो। जीव जंतुओं को कष्ट मत दो। इसके साथ ही हरिभजन के साथ नृत्य करने लगे। असुर बालक भी उनके साथ नृत्य करने लगे। जब हिरण्यकशिपु ने अपन दूत उन्हें रोकने के लिए भेजा तो वह भी नृत्य करने लगा।

भोलेबाबा का भोलापन

एक बार दुर्योधन, दु:शासन, कीचक, जरासंध और भीम भगवान भोलेनाथ के पास पहुंचते हैं और उनसे अमरत्व का वरदान मांगते हैं। भोलेबाबा ऐसा वर देने से यह कहकर मना कर देते हैं कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। किन्तु वे उन सभी को दस हजार हाथियों के बल का आशीर्वाद दे देते हैं। लौटते समय उन्हें एकाएक सूझता है कि दस हाथियों का बल तो मिल गया किन्तु उनकी मृत्यु कैसे होगी यह तो पूछा ही नहीं। वे वापस कैलाश की ओर लौटने लगते हैं। पर भीम कहता है कि वह थक गया है और ऊपर नहीं जाएगा। वे चाहें तो जाकर पूछ आएं, वह नीचे ही उनका इंतजार करेगा। चारों लौटकर भगवान भोलेनाथ के पास पहुंचते हैं और अपना प्रश्न रखते हैं। भगवान भोलेनाथ कहते हैं, किन्तु मैने वरदान तो पांच लोगों को एक साथ दिया था। पांचवा कहां है। उपहास के साथ वे कहते हैं कि भीम थक गया था। नीचे ही इंतजार कर रहा है। भगवन हमें बताएं कि हमारा संहार कौन करेगा। इस पर शिव मुस्कराए और बोले, तुम पांच में से जो यहां उपस्थित नहीं है, वही तुम सबका वध करेगा।
एक अन्य प्रसंग सुनाते हुए कथा व्यास आचार्य श्रीगोपालकृष्ण देवाचार्य कहते हैं कि रावण भोलेनाथ को लंका ले जाना चाहते थे।  उन्होंने अपनी आसुरी सोच के मुताबिक ही तय किया कि भोलेबाबा को तप से प्रसन्न किया जाए और पार्वती को मांग लिया जाए। जब पार्वती लंका में रहेंगी तो भोलेबाबा को भी वहां आना ही पड़ेगा। वह अपने तप में सफल हो जाता है। भोलेबाबा से पार्वती को मांग भी लेता है और लंका की तरफ चल पड़ता है। इस अधर्म को देख विष्णु चुप नहीं रह पाते। वे रावण का रास्ता रोक लेते हैं। वे रावण पर योगमाया का प्रयोग करते हैं और कहते हैं कि जिस पार्वती को तू ले जा रहा है वह नकली है। असली तो कैलाश पर ही है। इस पर रावण पार्वती को वहीं उतार देता है और लंका लौट जाता है। इसके बाद विष्णु भोलेनाथ को उलाहना देते हैं कि वे हर किसी की मन की मुराद पूरी करने के चक्कर में मुसीबतें खड़ी कर देते हैं और उन्हें (विष्णु को) दौड़ा-दौड़ा आना पड़ता है।

अर्जुन को दिया ब्रह्मज्ञान

अर्जुन जब सखा रूपी भगवान श्रीकृष्ण से ब्रह्मज्ञान की प्रार्थना करते हैं तो श्रीकृष्ण उन्हें बताते हैं कि जो सबमें मुझे देखे और मुझमें ही सबको पाए वही ब्रह्मज्ञानी है। ऐसे लोगों की भगवान सर्वत्र रक्षा करते हैं। उन्होंने नामदेव की कथा सुनाई। नामदेव उनका उत्कट भक्त था। एक बार नामदेव की झोंपड़ी में आग लग गई। वे तटस्थ भाव से वहां बैठे आहुति देते रहे। लोगों ने उन्हें पागल बताया और पूछा कि नामदेव यह क्या कर रहे हो। नामदेव ने कहा कि यह सब जिसका है उसीको अर्पण कर रहा हूं। निराश्रय नामदेव रात्रि को एक पेड़ के नीचे सो जाता है। उधर अपने भक्त को कष्ट में देखकर श्रीकृष्ण व्याकुल हो जाते हैं। वे अपने पार्षदों को लेकर नामदेव के घर जाने लगते हैं। तब रुकमणी भी उनके साथ चलने की जिद करती है। श्रीकृष्ण के पार्षद चुटकियों में नामदेव के घर की छान छा देते हैं। रुकमणी कालिख लगी दीवारों की पुताई कर देती हैं। जब सुन्दर घर तैयार हो जाता है तो योगमाया नामदेव को उठाकर घर के भीतर सुला देती है। भगवान अपने भक्तों की इसी तरह रक्षा करते हैं।
दूसरे दिन नामदेव के घर की सुन्दर छानी देखकर पड़ोसी पूछताछ करते हैं। वे कहते हैं कि इन्हीं मजदूरों से हम अपना भी घर बनवाएंगे। जितना पैसा लेंगे हम देंगे। नामदेव उन्हें बताते हैं कि ये मजदूर पैसों के लिए काम नहीं करते। यदि आप अपना चित्त भगवान में लगाओगे तभी यह संभव होगा।

करदम ऋषि का विवाह, कपिल का जन्म

ऋषि करदम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहते हैं तो ब्रह्मा महाराज मनु, उनकी पत्नी शतरूपा और कन्या देवहुति को उनके आश्रम में भेज देते हैं। देवहुति के सामने करदम ऋषि यह शर्त रखते हैं कि एक पुत्र होने तक ही वे गृहस्थ आश्रम में रहेंगे। देवहुति इसे स्वीकार कर लेती है। देवहुति एक के बाद एक नौ कन्याओं को जन्म देती है। इसके बाद एक अत्यंत रूपवान पुत्र के रूप में कपिल अवतार होता है। कुछ दिन बालक कपिल के साथ समय गुजारने के बाद करदम ऋषि वानप्रस्थ को चले जाते हैं। इधर देहहुति भी तपस्या कर अपने शरीर को क्षीण कर लेती है और देह त्याग देती है।

गर्भस्थ शिशु का वचन


जब शिशु गर्भ में होता है तो वह व्याकुल होता है। वह जल्द से जल्द इस अंधकूप से निकलना चाहता है। तब भगवान उससे कहते हैं कि क्या तू धरती पर जाकर मेरा स्मरण करेगा? क्या तू विषय वस्तुओं से खुद को अलग रखकर मेरे द्वारा दिखाए मार्ग का अनुसरण करेगा? याद रख यदि तूने ऐसा नहीं किया तो तुझे एक बार फिर 84 योनियों में भटकने के लिए भेज दूंगा। शिशु भगवतमार्ग पर चलने की कसम खाता है और भूमिष्ट हो जाता है। किन्तु इसके बाद बहुत कम लोगों को ही गर्भ में भगवान को दिया अपना वचन याद रहता है। शुकदेव ने राजा परीक्षित को श्रीमदभागवत महापुराण की कथा सुनाने से पूर्व भी यही कहा कि यदि मनुष्य अपने चित्त को भगवान में लगाता है तो उसका मृत्यु का भय खत्म हो जाता है और वह दिव्यलोक को प्राप्त होता है। उन्होंने विभिन्न कथा प्रसंगों से इसकी व्याख्या की।
हरिणाक्ष का जन्म
भगवान ब्रह्मा के पुत्र सनकादिक जब भगवान से मिलने बैकुंठधाम पहुंचे तो उन्होंने छह द्वार अनायास पार कर लिए किन्तु सातवें द्वार पर खड़े द्वारपालों ने उन्हें रोका। इसपर सनकादिक क्रोधित हो गए और उन्हें टोकते हुए कहा - भगवान की शरण में रहने के बाद भी कैसे अज्ञानी हो। ऋषियों और भक्तों पर संदेह करते हो। इसके बाद भगवान स्वयं वहां उपस्थित हो जाते हैं और अपने द्वारपाल जय और विजय को दंडित कर मृत्युलोक भेज देते हैं।
उधर मृत्युलोक में कश्यप ऋषि की पत्नी दिती उनसे असमय गर्भधारण की इच्छा जताती है। कश्यप ऋषि उसकी बात तो मान जाते हैं किन्तु साथ ही भविष्यवाणी भी कर देते हैं कि उनके गर्भ से भयंकर राक्षसों का जन्म होगा। दिती के गर्भ में जय और विजय जुड़वा रूप में आ जाते हैं। दिती के गर्भ का तेज देखकर देवता घबरा जाते हैं। पर भगवान उन्हें आश्वस्त करते हैं कि इनका संहार वे स्वयं करेंगे। समय आने पर दिती के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हरिणाक्ष का जन्म होता है। दोनों भयानक राक्षस होते हैं। हिरण्यकश्यप जहां राजा हो जाता है वहीं हरिणाक्ष समुद्र में छलांग लगा देता है। वहां उसका सामना वरुण से होता है और वह वहीं रहने लगता है।
वराह अवतार
दैत्य पृथ्वी को पाताल लोक में छिपा देते हैं। लोग त्राहि त्राहि कर उठते हैं। देवता एक बार फिर ब्रह्मा के पास पहुंचते हैं। ब्रह्मा जी की छींक से एक सूक्ष्म वराह की उत्पत्ति होती है जो जन्म लेते ही विशाल आकार धारण कर लेता है। विशाल वराह समुद्र में छलांग लगा देता है और उसे दो भागों में बांटता हुआ पाताल लोक में चला जाता है। वहां से वह पृथ्वी को अपनी डाढ़ पर टिकाए तेजी से ऊपर लौटने लगता है। हिरणाक्ष उनकी राह रोकने की कोशिश करता है पर भगवान वराह पृथ्वी को वापस उसके स्थान पर लाकर स्थापित कर देते हैं। फिर हिरणाक्ष से उनका भयानक युद्ध होता है। अंत में वे हिरणाक्ष का गर्व खंडित कर देते हैं और मुष्टिका प्रहार से उसे शरीर से मुक्त कर देते हैं।

सबसे पहले शुकदेव ने सुनाई परीक्षित को कथा

कथा व्यास ने बताया कि श्रीमदभागवत महापुराण की रचना महर्षि वेद व्यास ने सरस्वती नदी के तट पर स्थित अपने आश्रम में की थी। इसकी प्रेरणा उन्हें महर्षि नारद से मिली थी। उनके आश्रम के चारों तरफ बेरों के पेड़ थे जिसके कारण यह बद्रिकाश्रम भी कहलाता है।
वेद व्यास के पुत्र शुकदेव जन्म के साथ ही वैरागी हो गए और वन को चले गए। उन्हें रोकने की सभी चेष्टाएं विफल हो गईं। इधर वेद व्यास ने श्रीमदभागवत महापुराण श्लोक की रचना कर ली थी। इसमें 12 स्कंध, 335 अध्यायों में 18 हजार श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण के 22 अवतारों की विस्तार से चर्चा है। अब इसे कहने के लिए योग्य व्यक्ति की तलाश शुरू हुई। वेद व्यास को शुकदेव की याद आई। उन्होंने अपने दो शिष्यों को बुलाया और उन्हें एक एक श्लोक कंठस्थ करा दिया। इसके बाद उन्होंने दोनों को वन में भेज दिया। उन्हें विश्वास था कि इन श्लोकों को सुनने के बाद शुकदेव वापस घर लौट आएंगे। इनमें से पहला श्लोक जब शुकदेव के कानों में पड़ा तो उन्होंने इसे कहने वाले को अपने पास बुलाया और पूछताछ की। उसने बताया कि इसकी रचना वेद व्यास जी ने की है। श्लोक की सुन्दरता पर वे मोहित हो गए। पर शुकदेव ने मन में यही सोचा कि जिस गृहस्थाश्रम को वे छोड़ आए हैं वहां जाना उचित नहीं होगा। तभी उनके कानों में दूसरा श्लोक पड़ा। यह श्लोक भी उतना ही मधुर था। श्लोक ने उनके मन के इस द्वंद्व को खत्म कर दिया कि उन्हें घर जाना चाहिए या नहीं। उनके मन में यह आवाज आई कि विशेष प्रयोजन से कहीं भी जाने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए। वे घर लौटे और पिता के सान्निध्य में श्रीमदभागवत महापुराण का अध्ययन किया और फिर राजा परीक्षित को इसका कथा सुनाई। यह संसार में श्रीमदभागवत  महापुराण कथा सुनाने का पहला दृष्टांत है।
कथा व्यास ने कहा कि श्रीमदभागवत महापुराण स्वयं में श्रीकृष्ण का पूर्ण मिठास लिए हुए है। शुक का एक अर्थ तोता भी है। कहते हैं तोता जिस फल को चोंच मार देता है वह मीठा हो जाता है। इसलिए शुकदेव के मुख से निकलकर श्रीमदभागवत महापुराण और भी मीठा हो गया। इसके श्रवण मात्र से सभी पाप और मोह का नाश होता है।
कलियुग को क्यों छोड़ा
महापराक्रमी राजा परीक्षित ने जब कलियुग को क्षमादान दे दिया तो उनसे पूछा गया कि उन्हें आखिर कलि को क्यों छोड़ा। इस पर राजा परीक्षित ने कहा कि कलि में एक विशेषता यह भी है कि कलियुग में केवल नाम संकीर्तन से ही मोक्ष मिल जाएगा। इससे पहले मोक्ष के लिए कठिन तपस्या साधना करनी पड़ती थी।
भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की कथा
एक बार एक संन्यासी को राह में एक वृद्धा बैठी दिखाई दी। उनके पास दो वृद्ध अचेतावस्था में पड़े थे। संन्यासी ने वृद्धा से पूछा, तुम कौन हो और ये वृद्ध कौन हैं। तब वृद्धा ने बताया कि वह उसका नाम भक्ति है। अचेत पड़े दोनों वृद्ध ज्ञान और वैराग्य हैं। उनका जन्म द्रविड़ क्षेत्र में हुआ। बाल्यकाल कर्नाटक में बीता। महाराष्ट्र आते तक यौवन बीतने लगा और गुजरात आते तक वृद्धावस्था ने घेर लिया। तब संन्यासी ने उन्हें वृंदावन जाने की सलाह दी। वृंदावन पहुंचते ही वह तन्वी हो गई। तब उन्हें यह ज्ञान मिला कि वृंदावन में श्रीराधाकृष्ण की भक्ति नृत्य करती है इसलिए यहां पहुंचते ही तरुणाई लौट आती है।
राधे नाम से दूर होती हैं बाधाएं
कथा व्यास श्रीगोपालशरण देवाचार्य ने बताया कि श्रीराधा का नाम लेने से सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। इसी तरह भागवत शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि भा अर्थात जिसकी शोभा सभी वेदों में हो। ग यानि जो गति को जानने वाला हो, गति की महिमा को जानता हो, व से तात्पर्य वरिष्ठ या सर्वोत्तम से है। इसी तरह त से तात्पर्य परम तत्व या भगवान के साक्षात रूप से है।
कलि का अवतार आना बाकी
कथा व्यास ने बताया कि श्रीमदभागवत महापुराण में भगवान के 22 अवतारों के विषय में बताया गया है। कलि का अवतार अभी आना शेष है।

आत्मदेव ब्राह्मण की कथा

आत्मदेव ब्राह्मण अत्यंत ज्ञानी थे और उनकी पत्नी भी अत्यंत रूपवती थी किन्तु उनके मन में अथाह पीड़ा थी। वे स्वयं तो संतानहीन थे ही, उनके यहां की गाय भी बांझ थी। वे कोई पौधा रोपते तो उसमें भी फल, फूल आदि नहीं लगते। इसी पीड़ा को लेकर आत्मदेव ब्राह्मण किसी तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। पर जब अंतस की पीड़ा असह्य हो गई तो एक दिन उन्होंने अपने प्राण त्याग देने की ठानी और पहुंच गए सरोवर के तट पर। वहां उनकी मुलाकात एक संन्यासी से हुई। आत्मदेव को प्राणोत्सर्ग करने की चेष्टा करते देख संन्यासी को उसपर दया आ गई। उन्होंने आत्मदेव से इसका कारण पूछा। आत्मदेव ने अपनी पीड़ा सुनाई। संन्यासी ने अपने तपोबल से उसके ललाट को देखा। उन्होंने आत्मदेव को बताया कि उसे तो सात जन्मों तक संतान सुख नहीं मिलने वाला। आत्मदेव अनुनय करने लगे तो संन्यासी ने उन्हें एक फल दिया। उन्होंने आत्मदेव से कहा कि वह फल को लेकर अपनी पत्नी को खिला दे। उसे अवश्य संतान होगी।
आत्मदेव खुशी खुशी अपने घर लौट आया। उसने वह फल अपनी पत्नी धुंधली को दे दिया और सारा हाल कह सुनाया। धुंधली ने फल को ले तो लिया किन्तु उसके मान में तर्क कुतर्क उठने लगे। उसने सोचा कि यदि फल को खाने के बाद उसने गर्भधारण कर लिया तो उसका सुन्दर शरीर विकृत हो जाएगा। शिशु के उत्पन्न होने पर उसकी देखभाल करनी पड़ेगी। उसने वह फल अपनी बहन को दे दिया। धुंधली की बहन उस समय गर्भवती थी। धुंधली के मन के द्वंद्व को ताड़कर उसने धुंधली से कहा कि जन्म देने के बाद वह अपनी संतान उसे सौंप देगी। उसकी देखभाल करने के लिये वह यहां रुक भी जाएगी। ऐसा कहकर उसने फल गाय को खिला दिया।
समय आने पर धुंधली की बहन ने एक शिशु को जन्म दिया। उसका नाम धुंधकारी रखा गया। उधर गाय ने भी एक इंसान रूपी शिशु को जन्म दिया। सिर्फ उसके कान गौमाता की तरह थे। उसका नाम गौकरण रखा गया। दोनों शिशु बड़े होने लगे। संन्यासी के आशीर्वाद से उत्पन्न गौकर्ण ने तेजी से ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया और उसमें दैवीय गुण विकसित होने लगे। इधर धुंधकारी उत्कट स्वभाव वाला निकला। उसमें विकृत गुणों का विकास होने लगा। आत्मदेव यह सब देखकर अत्यंत दुखी हो गए। वह दिन रात चिंता करते रहते। एक दिन गौकर्ण ने उन्हें चिंता में डूबे देखा तो पूछा कि वे किसे अपना मान रहे हैं। यह सब तो एक दिन नष्ट होना ही है। उन्होंने आत्मदेव को भागवत में ध्यान लगाने की सलाह दी। आत्मदेव ने ऐसा ही किया और क्लेष से मुक्त हो गया।
उधर धुंधकारी ने अपनी माता को भयंकर कष्ट देना शुरू किया। धुंधली बहुत दुखी रहने लगी। धुंधकारी सकल कुकर्मी, वेश्यागामी हो गया था। धुंधली ने यह सब देखकर एक दिन कुएं में छलांग लगाकर अपने प्राण त्याग दिए। इसके बाद तो धुंधकारी और भी विश्रृंखल हो गया। वह अपने घर पर ही तमाम वेश्याओं को लेकर आने लगा। घर की जमा पूंजी, बर्तन भांडे सब बिक गए। धुंधकारी चोरियां करने लगा। एक दिन उसने राजा के घर चोरी कर ली और सारा माल लेकर वेश्याओं के पास पहुंचा। वेश्याओं को यह डर सताने लगा कि धुंधकारी ने राजा के घर चोरी की है। इसकी तो पड़ताल होकर रहेगी। और जब धुंधकारी पकड़ा जाएगा तो उसे तो दण्ड मिलेगा ही साथ ही हमें भी कष्ट भोगना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने धुंधकारी की हत्या कर दी। इस तरह धुंधकारी प्रेत योनि में चला गया और घर के आसपास भटकने लगा।
उधर तीर्थ से लौटकर गौकर्ण जब घर आया तो वहां सन्नाटा पसरा हुआ था। उसने वहीं विश्राम करने की ठानी। तब जाकर उसे प्रेत के विलाप की ध्वनियां सुनाई दीं। उसने प्रेत से पूछा कि वह कौन है और क्या चाहता है। पर प्रेत की बातें वह सुन नहीं पा रहा था। तब उसने अपने कमंडल से उसपर तीर्थ का जल छिड़का। इसपर धुंधकारी ने कहा कि वह उनका अभागा भाई है। उसने उन्हें सारी आपबीती सुना दी। धुंधकारी ने गौकर्ण से विनती की कि वह उन्हें प्रेतयोनि से मुक्त कराए। पहले तो गौकर्ण उलझन में पड़ गया। फिर उसने एक ब्राह्मण को श्रोता बनाया और भागवत कथा सुनानी शुरू कर दी। उसने धुंधकारी से कहा कि वह भी कथा सुने। सात दिन बाद जब कथा पूर्ण हुई तो धुंधकारी को प्रेत योनि से मुक्ति मिल गई। उसे गोकुलधाम ले जाने के लिए विमान आ पहुंचा। इसे देखकर जब ब्राह्मण ने पूछा कि धुंधकारी के लिए विमान क्यों तो गौकर्ण ने कहा कि धुंधकारी ने चूंकि कथा पूर्ण मनोयोग के साथ एक चित्त होकर सुनी थी इसलिए उसे श्रेष्ठ परिणाम मिला है।

मानव तन दुर्लभ पर क्षणभंगुर

कथा व्यास श्रीगोपाल शरण देवाचार्य ने कहा है कि 84 लाख योनियों में भटकने के बाद ही मनुष्य का शरीर मिलता है। यह एक दुर्लभ संयोग है किन्तु क्षणभंगुर है। यह शरीर हमसे कब छिन जाए कुछ पता नहीं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह आरंभ से ही खुद को भगवान के चरणों में अर्पित कर दे, अपने चित्त को भगवान में लगा दे। ऐसा करने पर मृत्यु के समय उसे भगवान की ही याद आएगी और वह भगवान को प्राप्त कर लेगा।

आकाश से सुनते हैं देवता

जन्म जन्मांतर के पुण्यों से भागवत आयोजन का सौभाग्य मिलता है। इसके श्रवण मात्र से पितरों को मोक्ष मिल जाता है तथा अपने लिए भी श्रीकृष्णधाम में स्थान सुरक्षित हो जाता है। भागवत सुनने के लिए आकाश में देवता आकर स्थिर हो जाते हैं और भागवत श्रवण करते हैं, क्योंकि यह सौभाग्य स्वर्गलोक में नहीं है। जिसे भागवत श्रवण का अवसर नहीं मिलता उसका जीवन पशुतुल्य है। ऐसे जातक अपनी मां के कोख को भी अनावश्यक पीड़ा देकर इस दुनिया में आते हैं।

क्यों हुई भागवत की रचना

उन्होंने कहा कि व्यास ने 17 पुराणों और महाभारत की रचना करने के बाद भी पाया कि उनका चित्त शांत नहीं है। वहां रिक्तता है। तब देवर्षि नारद ने उन्हें श्रीकृष्ण पर ध्यान केन्द्रित करने का उपदेश दिया। इसके बाद महर्षि व्यास ने श्रीमदभागवत महापुराण की रचना की। वेदव्यास के पुत्र शुकदेव ने सबसे पहले श्रीमदभागवत महापुराण राजा परीक्षित को सुनाया। श्रीमदभागवत साक्षात कल्पवृक्ष है। यह शब्द रूप में स्वयं श्रीकृष्ण हैं। इसलिए इसके श्रवण से मोक्ष मिल जाता है। उन्होंने बताया कि इस आयोजन का सौभाग्य जन्म जन्मांतर के पुण्यों से प्राप्त होता है।

किसे है कथा का अधिकार

वही साधक कथा का अधिकारी है जिसने ज्ञान प्राप्त किया हो, वैराग्य की स्थिति में हो और भक्ति में पूर्ण हो। सही मायने में कथा वाचक को विरक्त, वैष्णव या सदविप्र होना चाहिए। उसे वेदों का ज्ञाता होना चाहिए तथा दृष्टांत देने में कुशल होना चाहिए। उसमें लोभ नहीं होना चाहिए। कथावाचक को कथा के बीच कभी विषयांतर में नहीं जाना चाहिए। ऐसी कथा को सुनने का कोई लाभ नहीं होता। कथावाचक को केवल उन्हीं बातों की चर्चा करनी चाहिए जिन्हें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है।

भागवत श्रवण से मिलती है प्रेत योनि से मुक्ति

कथा व्यास आचार्य श्री गोपालशरण देवाचायर्जी ने कहा कि सभी वेदों, पुराणों तथा महाभारत के निचोड़ से रचित भागवत के श्रवण मात्र से सभी कष्टों का अन्त होता है। भागवत कथा श्रवण से प्रेत योनि से भी मुक्ति मिल जाती है।

अलग से हो साईं के मंदिर

साईं की पूजा को लेकर उठे विवाद पर कथा व्यास ने कहा कि धर्मसंसद का फैसला सही है। हमें अपने धर्म की रक्षा करनी चाहिए। तभी धर्म हमारी रक्षा करने में समर्थ होगा। निम्बकाचार्य सम्प्रदाय से आने वाले कथाव्यास कहते हैं कि देवी देवताओं के मंदिरों की अस्मिता को क्षति नहीं पहुंचना चाहिए। सार्इं के प्रति यदि आसक्ति है तो उनके लिए स्वतंत्र मंदिरों का निर्माण किया जा सकता है किन्तु हिन्दू देवी देवताओं के समकक्ष उनकी पूजा नहीं की जा सकती।

समय से पहले कुछ नहीं होता

कथा व्यास ने कहा कि कुछ लोगों द्वारा यह प्रश्न अनावश्यक रूप से उछाला जा रहा है कि शंकराचार्य ने यह मुद्द अब जाकर क्यों उठाया। यह बहस बेमानी है। प्रत्येक कार्य अपना समय आने पर ही होता है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का जन्म छह अबोध शिशुओं की हत्या के बाद हुआ। क्या अब यह भी पूछा जाएगा कि उनका जन्म पहले क्यों न हुआ। यदि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म पहले हो जाता तो कंस के हाथों क्या वह घोर पाप होते? भगवान श्रीकृष्ण पापों और अधर्म का नाश करते हैं।

भाषा, भाव, संस्कृति की रक्षा हो

कथा व्यास ने कहा कि मनुष्य को अपनी भाषा, भाव, संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करनी चाहिए। संस्कृत हमारी सभ्यता का मूल है। इसकी उत्पत्ति शिवजी के डमरू से निकले 14 स्वरों से हुआ। इसका ज्ञान नहीं होने के कारण ही लोग भ्रमित हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज विश्व के अनेक विकसित देशों में संस्कृत का गहन अध्ययन हो रहा है ताकि वे हमारी संस्कृति और सभ्यता को उसके मूल रूप में समझ सकें जबकि हम पाश्चात्य के अंधानुकरण में अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। इसका परिणाम चारों तरफ दिखाई दे रहा है।