कथा व्यास श्रीगोपाल शरण देवाचार्य ने कहा भगवान हर हाल में अपने भक्त की रक्षा करते हैं। जिसकी जिह्वा पर एक बार भी भगवान का नाम आ गया, वे उसे तार देते हैं। अपनी ताकत और संख्याबल के दर्प में चूर्ण गजेन्द्र को जब ग्राह ने जकड़ लिया तो अंतिम समय में उन्होंने विष्णु का स्मरण किया और भगवान विष्णु वहां पहुंच गए।
त्रिकूट नामक सुन्दर पर्वत की तलहटि के वनों में गजराज का निवास था। उनकी काया विशाल थी और वे बेहद शक्तिशाली भी थे। उनका हथिनियों का झुण्ड भी विशाल था। गजराज को अपनी ताकत और संख्याबल पर घमण्ड हो गया था। एक दिन वे हथिनियों के साथ विचरते हुए वन में दूर तक निकल गए। उन्हें प्यास लग आई। उन्होंने अपनी सूंड ऊपर उठाकर चारों दिशाओं की हवा को सूंघा और सरोवर का संकेत मिलने पर उधर ही चले गए। यह सरोवर बेहद सुन्दर था। उसमें सुन्दर कमल खिले हुए थे। कमल के पराग से सरोवर का जल स्वर्णाभ हो गया था। गजराज ने एक पांव सरोवर में रखा और सूंड से जल खींचकर उसे हथिनियों पर छिड़कने लगे। इसी तरह जलक्रीड़ा करते हुए उन्होंने अपनी प्यास भी बुझाई और शरीर को भी ठंडा कर लिया। किन्तु जब गजराज बाहर निकलने को हुए तो ग्राह ने उनके पैरों को जकड़ लिया। कभी गजराज ग्राह को घसीटते हुए किनारे तक आते तो कभी ग्राह उन्हें घसीटता हुआ सरोवर के बीच ले जाता। हथिनियों ने पहले तो गजराज की मदद की कोशिश की किन्तु बाद में उसे मरता छोड़कर चली गईं। एक हजार साल तक चली इस खींचातानी के बाद गजराज निढाल हो गया। अपने अंतिम समय में उसे श्रीहरि की याद आ गई और वह पूरे मन से रक्षा के लिए उन्हें पुकारने लगा। श्रीविष्णु भी कहां रुकने वाले थे। तत्काल अपने गरूढ़ पर सवार होकर वे सरोवर की तरफ उड़ चले। दूर से ही उन्होंने गजेन्द्र को छटपटाते देख लिया। उन्होंने गरूढ़ को उतरने का संकेत किया तो उसने कहा कि कुछ वक्त लगेगा। इसपर श्रीहरि ने गरूढ़ पर से छलांग लगा दी। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह के टुकड़े टुकड़े कर दिए और गजेन्द्र के प्राणों की रक्षा की।
सुदर्शन चक्र से टुकड़े टुकड़े होने पर ग्राह की मुक्ति हो गई। इसपर देवताओं ने श्रीहरि से पूछा कि यह आपने क्या किया। आपको तो गजेन्द्र ने पुकारा था किन्तु आपने उससे पहले ग्राह को मुक्ति दे दी। तब श्रीहरि ने मुस्कराते हुए बताया कि ये दोनों ही अपने पूर्व जन्मों का फल भोग रहे हैं। यह ग्राह पूर्व जन्म में हूहू नाम का गंधर्व था। वह देवल ऋषि को परेशान कर रहा था। जब भी देवल ऋषि स्नान के लिए जाते वह उनके पांव पकड़ लेता। ऋषि के श्राप से ही वह ग्राह बनकर यहां पड़ा हुआ था। और गजेन्द्र पूर्व जन्म में राजा इंद्रद्युम्न था। उसे अपनी शक्ति का गर्व हो गया था। वह भी श्राप से ही गजराज के रूप में मृत्युलोक में पहुंचा था। ये दोनों ही मेरे भक्त हैं और मुझे प्रिय हैं।
इतना सुनते ही हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया। उसने प्रह्लाद को ऊंचे पर्वत से फेंकने का आदेश दिया। पर जैसे ही प्रह्लाद को फेंका गया वह सुन्दर नर्म फूलों का बिस्तर लग गया। प्रह्लाद को खरोंच तक नहीं आई। उसे मदमत्त हाथी से कुचल कर मारने की कोशिश की गई किन्तु हाथी आगे ही नहीं बढ़े। उसे भयंकर विषधर सर्पों के साथ एक कक्ष में बंद कर दिया गया। श्रीहरि ने बालक के शरीर को वज्र सा कठोर बना दिया। हिरण्यकशिपु के आदेश पर प्रह्लाद को उसकी माता ने विषयुक्त भोजन परोसा। पर विष्णु की आज्ञा पर श्रीलक्ष्मी ने प्रह्लाद को भोजन अपने हाथों से कराया जिससे विष का प्रभाव समाप्त हो गया। इस तरह जब हिरण्यकशिपु सारे उपाय करके हार गया तो उसकी बहन होलिका ने एक प्रस्ताव दिया। उसने बताया कि उसके पास अग्निचीर है। यदि वह अग्निचीर ओढ़कर बालक प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करती है तो प्रह्लाद भस्म हो जाएगा जबकि उसका बाल भी बांका नहीं होगा। हिरण्यकशिपु ने बड़ी चिता सजाने की आज्ञा दी पर काष्ठागारों ने लकड़ी देने से इंकार कर दिया। तब इधर उधर से चोरी करके काष्ठ का इंतजाम किया गया और चिता सजाई गई। इसपर होलिका प्रह्लाद को लेकर बैठ गई। जैसे ही चिता को अग्नि दी गई भगवान के आदेश से पवन देव ने अग्निचीर को उड़ाकर उससे प्रह्लाद को लपेट दिया। होलिका जलकर राख हो गई और बालक प्रह्लाद श्रीहरि का कीर्तन करता हुआ बाहर आ गया। इसके बाद हरिण्यकशिपु ने भयंकर हुंकार भरते हुए प्रह्लाद को ललकारा कि क्या उसका भगवान विशाल खंभे में भी है। प्रह्लाद ने कहा हां। जैसे ही हिरण्यकशिपु ने खंभे पर प्रहार किया वहां से भयंकर गजर्ना करते हुए नृसिंह रूप में भगवान बाहर आ गए। दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था कि उसे न तो दिन में और न रात में, न नीचे और न ऊपर, न अस्त्र से और न शस्त्र से, न नर और न ही सिंह के हाथों मृत्यु प्राप्त हो सकती है। नृसिंह अवतार ने उसे उठाकर अपनी जांघों पर धर दिया और पंजों से उसे फाड़कर उसके प्राण निकाल दिए। इस तरह से हिरण्यकशिपु को भी मुक्ति मिल गई। जब देवताओं ने हिरण्यकशिपु जैसे राजा की मुक्ति की बाबत सवाल किया तो श्रीहरि ने कहा कि जिस परिवार में एक वैष्णव (विष्णुभक्त) का जन्म हो जाए, उसकी 21 पीढि?ां तर जाती हैं। हिरण्यकशिपु के साथ भी ऐसा ही हुआ।
त्रिकूट नामक सुन्दर पर्वत की तलहटि के वनों में गजराज का निवास था। उनकी काया विशाल थी और वे बेहद शक्तिशाली भी थे। उनका हथिनियों का झुण्ड भी विशाल था। गजराज को अपनी ताकत और संख्याबल पर घमण्ड हो गया था। एक दिन वे हथिनियों के साथ विचरते हुए वन में दूर तक निकल गए। उन्हें प्यास लग आई। उन्होंने अपनी सूंड ऊपर उठाकर चारों दिशाओं की हवा को सूंघा और सरोवर का संकेत मिलने पर उधर ही चले गए। यह सरोवर बेहद सुन्दर था। उसमें सुन्दर कमल खिले हुए थे। कमल के पराग से सरोवर का जल स्वर्णाभ हो गया था। गजराज ने एक पांव सरोवर में रखा और सूंड से जल खींचकर उसे हथिनियों पर छिड़कने लगे। इसी तरह जलक्रीड़ा करते हुए उन्होंने अपनी प्यास भी बुझाई और शरीर को भी ठंडा कर लिया। किन्तु जब गजराज बाहर निकलने को हुए तो ग्राह ने उनके पैरों को जकड़ लिया। कभी गजराज ग्राह को घसीटते हुए किनारे तक आते तो कभी ग्राह उन्हें घसीटता हुआ सरोवर के बीच ले जाता। हथिनियों ने पहले तो गजराज की मदद की कोशिश की किन्तु बाद में उसे मरता छोड़कर चली गईं। एक हजार साल तक चली इस खींचातानी के बाद गजराज निढाल हो गया। अपने अंतिम समय में उसे श्रीहरि की याद आ गई और वह पूरे मन से रक्षा के लिए उन्हें पुकारने लगा। श्रीविष्णु भी कहां रुकने वाले थे। तत्काल अपने गरूढ़ पर सवार होकर वे सरोवर की तरफ उड़ चले। दूर से ही उन्होंने गजेन्द्र को छटपटाते देख लिया। उन्होंने गरूढ़ को उतरने का संकेत किया तो उसने कहा कि कुछ वक्त लगेगा। इसपर श्रीहरि ने गरूढ़ पर से छलांग लगा दी। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह के टुकड़े टुकड़े कर दिए और गजेन्द्र के प्राणों की रक्षा की।
सुदर्शन चक्र से टुकड़े टुकड़े होने पर ग्राह की मुक्ति हो गई। इसपर देवताओं ने श्रीहरि से पूछा कि यह आपने क्या किया। आपको तो गजेन्द्र ने पुकारा था किन्तु आपने उससे पहले ग्राह को मुक्ति दे दी। तब श्रीहरि ने मुस्कराते हुए बताया कि ये दोनों ही अपने पूर्व जन्मों का फल भोग रहे हैं। यह ग्राह पूर्व जन्म में हूहू नाम का गंधर्व था। वह देवल ऋषि को परेशान कर रहा था। जब भी देवल ऋषि स्नान के लिए जाते वह उनके पांव पकड़ लेता। ऋषि के श्राप से ही वह ग्राह बनकर यहां पड़ा हुआ था। और गजेन्द्र पूर्व जन्म में राजा इंद्रद्युम्न था। उसे अपनी शक्ति का गर्व हो गया था। वह भी श्राप से ही गजराज के रूप में मृत्युलोक में पहुंचा था। ये दोनों ही मेरे भक्त हैं और मुझे प्रिय हैं।
हिरण्यकशिपु का अंत
श्रीहरि की आज्ञा से मृत्युलोक पर जन्म लेने वाले उनके दो द्वारपालों में से एक हिरण्याक्ष का वध तो उन्होंने वराह अवतार के रूप में पहले ही कर दिया था, अब रह गया था हिरण्यकशिपु। वह न केवल स्वयं को भगवान समझता था बल्कि दूसरों को भी ईश्वर का नाम लेने से रोकता था। ऐसे व्यक्ति के घर श्रीहरि के अनन्य भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ। प्रह्लाद जब पांच वर्ष का हुआ तो हिरण्यकशिपु ने उसे शुक्राचार्य के पुत्र के पास धर्मविहीन शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा। कुछ समय बाद जब प्रह्लाद राजमहल लौटे तो हिरण्यकशिपु ने उससे पूछा कि वह क्या सीख कर आया है। प्रह्लाद ने कहा कि यह संसार अंधा कुआं है। यहां जन्म लेने वाले को कुछ दिखाई नहीं देता। इसलिए उसे अपने आपको भगवत चरणों में अर्पित कर सांसारिक कत्र्तव्यों का पालन करना चाहिए। कुपित हिरण्यकशिपु ने उसे पुन: धमर्हीन शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेज दिया। इस बार भी लौटने पर उसने वही कहा कि ईश्वर के नाम का श्रवण, कीर्तन करने वाले को ही मुक्ति मिलती है। ईश्वर की दास भाव से सेवा करानी चाहिए और सखा भाव से भजन करना चाहिए। भगवान के चरणों में खुद को न्यौछावर कर देना चाहिए।इतना सुनते ही हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया। उसने प्रह्लाद को ऊंचे पर्वत से फेंकने का आदेश दिया। पर जैसे ही प्रह्लाद को फेंका गया वह सुन्दर नर्म फूलों का बिस्तर लग गया। प्रह्लाद को खरोंच तक नहीं आई। उसे मदमत्त हाथी से कुचल कर मारने की कोशिश की गई किन्तु हाथी आगे ही नहीं बढ़े। उसे भयंकर विषधर सर्पों के साथ एक कक्ष में बंद कर दिया गया। श्रीहरि ने बालक के शरीर को वज्र सा कठोर बना दिया। हिरण्यकशिपु के आदेश पर प्रह्लाद को उसकी माता ने विषयुक्त भोजन परोसा। पर विष्णु की आज्ञा पर श्रीलक्ष्मी ने प्रह्लाद को भोजन अपने हाथों से कराया जिससे विष का प्रभाव समाप्त हो गया। इस तरह जब हिरण्यकशिपु सारे उपाय करके हार गया तो उसकी बहन होलिका ने एक प्रस्ताव दिया। उसने बताया कि उसके पास अग्निचीर है। यदि वह अग्निचीर ओढ़कर बालक प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करती है तो प्रह्लाद भस्म हो जाएगा जबकि उसका बाल भी बांका नहीं होगा। हिरण्यकशिपु ने बड़ी चिता सजाने की आज्ञा दी पर काष्ठागारों ने लकड़ी देने से इंकार कर दिया। तब इधर उधर से चोरी करके काष्ठ का इंतजाम किया गया और चिता सजाई गई। इसपर होलिका प्रह्लाद को लेकर बैठ गई। जैसे ही चिता को अग्नि दी गई भगवान के आदेश से पवन देव ने अग्निचीर को उड़ाकर उससे प्रह्लाद को लपेट दिया। होलिका जलकर राख हो गई और बालक प्रह्लाद श्रीहरि का कीर्तन करता हुआ बाहर आ गया। इसके बाद हरिण्यकशिपु ने भयंकर हुंकार भरते हुए प्रह्लाद को ललकारा कि क्या उसका भगवान विशाल खंभे में भी है। प्रह्लाद ने कहा हां। जैसे ही हिरण्यकशिपु ने खंभे पर प्रहार किया वहां से भयंकर गजर्ना करते हुए नृसिंह रूप में भगवान बाहर आ गए। दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था कि उसे न तो दिन में और न रात में, न नीचे और न ऊपर, न अस्त्र से और न शस्त्र से, न नर और न ही सिंह के हाथों मृत्यु प्राप्त हो सकती है। नृसिंह अवतार ने उसे उठाकर अपनी जांघों पर धर दिया और पंजों से उसे फाड़कर उसके प्राण निकाल दिए। इस तरह से हिरण्यकशिपु को भी मुक्ति मिल गई। जब देवताओं ने हिरण्यकशिपु जैसे राजा की मुक्ति की बाबत सवाल किया तो श्रीहरि ने कहा कि जिस परिवार में एक वैष्णव (विष्णुभक्त) का जन्म हो जाए, उसकी 21 पीढि?ां तर जाती हैं। हिरण्यकशिपु के साथ भी ऐसा ही हुआ।

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